हिन्दी

असली रंग दिखाते हुए

भारत की मोदी सरकार, ईरान पर अमेरिकी इसराइली जंग का चुपचाप समर्थन कर रही

अंग्रेजी के मूल लेख India’s Modi government tacitly backs the US-Israeli war on Iran का यह हिंदी अनुवाद 25 जून 2025 को प्रकाशित हुआ थाI

भारत की नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने ईरान पर साम्राज्यवादी आक्रामकता वाली अमेरिकी-इसराइली जंग की कई तरीकों से मदद की है।

इनमें शामिल हैः

  • बिना कुछ कहे, ईरान पर अमेरिकी-इसराइली हमले की पूरी तरह रज़ामंदी देना, इनके आपराधिक चरित्र की किसी भी या अमेरिका और उसके इसराइली प्रॉक्सी द्वारा किए गए कई युद्ध अपराधों में से किसी की भी आलोचना करने से इनकार करना;
  • तनाव कम करने के नाम पर ईरान पर दबाव डालना कि वो अपनी आत्मरक्षा के अधिकार को त्याग दे;
  • और पश्चिम एशिया में अमेरिका और इसराइल की नई जंग के बीच भारतीय अमेरिकी रिश्ते और क्वाड के साथ संबंध मजबूत करने में तेज़ी दिखाना, जबकि क्वाड हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन विरोधी शक्तियों की गुटबंदी है।

हालांकि मोदी सरकार, ईरान पर साम्राज्यवादी हमले में अपनी साठ गांठ पर, घरेलू और भूराजनीतिक दोनों कारणों में लीपापोती में जुटी हुई है।

भारत खुद को ईरान का सहयोगी बताता रहा है और ईरान के दक्षिणपूर्वी तट पर चाबहार पोर्ट को विकसित कर रहा है, ताकि अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया में वह अपने व्यापार और प्रभाव को और बड़े पैमाने पर बढ़ा सके। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि भारत नहीं चाहता कि खाड़ी के देशों से उसके संबंध किसी भी तरह से ख़राब हों, जो भारत की ज़रूरत का अधिकांश तेल सप्लाई करते हैं और देश से बाहर क़रीब एक करोड़ भारतीय वर्करों को नौकरी दिए हुए हैं।

मोदी की हिंदू वर्चस्ववादी बीजेपी, यहूदीवादी धुर दक्षिणपंथ के साथ अपनी राजनीतिक और वैचारिक क़रीबी मानती है और कुछ हद तक उसका समर्थन करती है। लेकिन सरकार यह भी जानती है कि भारत के अधिकांश कामगार और मेहनतकश लोग फ़लिस्तीनी लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और साम्राज्यवाद और वॉशिंगटन की वैश्विक दादागिरी और आक्रामकता के खिलाफ़ हैं।

जैसा कि वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट ने स्पष्ट किया है, ईरान पर अमेरिकी-इसराइली जंग, दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण तेल निर्यातक क्षेत्र पर आक्रामकता और युद्ध के द्वारा बेलगाम अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व को थोपने के वॉशिंगटन की दशकों पुरानी कोशिशों का ही नतीजा है।

यह अभियान अक्तूबर 2023 से नाटकीय रूप से उफान पर है। जबसे इसराइल ने ग़ज़ा की फ़लस्तीनी जनता पर जनसंहारक युद्ध छेड़ा है और पूरे पश्चिम एशिया में तबाही मचाई है और क्षेत्र में अमेरिकी-इसराइली दबदबे को चुनौती देने वाले देशों और मिलिशिया ग्रुपों पर हमले बोले हैं, इन 20 महीनों में अमेरिका ने अपने इसराइली क्षत्रप को बेशुमार राजनीतिक और सैन्य मदद दी है।

12 जून की रात को इसराइल द्वारा ईरान पर बिना उकसावे के किए गए हमले के साथ, जैसा कि ट्रंप ने दावा किया है, व्हाइट हाउस और पेंटागन के साथ घनिष्ठ समन्वय में और फिर ईरान की असैन्य परमाणु सुविधाओं पर वॉशिंगटन के अवैध गुपचुप हमले के साथ, अमेरिकी साम्राज्यवाद ने पूरे क्षेत्र और दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है।

सोमवार की आधी रात को ट्रंप की ओर से युद्धविराम की घोषणा से शत्रुता के वास्तविक या लंबे समय तक के लिए जंग के अंत की कोई गारंटी नहीं मिलती। तेहरान के साथ वार्ता के व्हाइट हाउस के वादों का इस्तेमाल, वॉशिंगटन और तेल अवीव ने बार-बार आक्रमण के लिए एक धूम्र आवरण के रूप में किया। किसी भी घटनाक्रम में, वे ईरान की कमज़ोर सैन्य स्थिति और ईरान के सहयोगियों चीन और रूस की ओर से कोई अर्थपूर्ण सहयोग करने में विफलता का पूरा फ़ायदा उठाएंगे ताकि जंग के बाद होने वाली वार्ताओं में वे ट्रंप के शब्दों में 'बिना शर्त आत्मसमर्पण' के लिए दबाव डाल सकें।

और बुनियादी रूप से कहें तो, ईरान पर ट्रंप का हमला और तेहरान में सत्ता परिवर्तन का लगातार अभियान, दरअसल अमेरिकी साम्राज्यवाद की विश्व स्थिति में तेजी से गिरावट के साथ जुड़ा हुआ है। वॉशिंगटन, ईरान पर शाह रजा पहलवी के ज़माने जैसी नव-औपनिवेशिक दासता को थोपने और इस तरह पश्चिम एशिया पर बेरोकटोक साम्राज्यवादी दबदबे को स्थापित करने के लिए कृतसंकल्प है, ताकि वह अपने सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक शत्रुओं- चीन और रूस से मुकाबला करने और अगर ज़रूरी हो तो उनके ख़िलाफ़ खुला युद्ध छेड़ने के लिए खुद को बेहतर स्थिति में रख सके।

इन सबको देखते हुए, मोदी सरकार की प्रमुख चिंता है भारत-अमेरिकी वैश्विक रणनीतिक साझेदारी को विस्तार करना जारी रखना और इसी के तहत नई दिल्ली ने भारतीय पूंजीपति वर्ग की महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा को पूरा करने में वॉशिंगटन के समर्थन के बदले में, चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी सैन्य-रणनीतिक आक्रामकता में खुद को और अधिक नाभिनालबद्ध कर लिया है।

इसी रूपरेखा के तहत, भारत ने भावी हिंदू लौहपुरुष मोदी के नेतृत्व में, इसराइल और उसकी दक्षिणपंथी सरकार के साथ तेजी से महत्वपूर्ण सैन्य-रणनीतिक संबंध भी विकसित किए हैं।

ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले पर भारत की प्रतिक्रिया खामोशी वाली थी। हालाँकि यह हमला स्पष्ट रूप से अवैध था, बेहद भड़काऊ था और इसमें अब तक के सबसे शक्तिशाली गैर-परमाणु बमों का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन नई दिल्ली ने इस हमले की आलोचना करना तो दूर, इसकी निंदा भी नहीं की।

प्रधानमंत्री मोदी ने रविवार को ईरानी राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियान को फ़ोन किया, ताकि तेहरान पर चिंता और सहानुभूति के दिखावटी भावों के बीच दबाव डाला जा सके कि वो कुछ भी न करे।

एक्स पर पोस्ट किए गए एक बयान में मोदी ने अमेरिकी आक्रामकता का कोई भी उल्लेख करने से सावधानीपूर्वक परहेज किया और स्पष्ट किया कि ईरान की सरकार के प्रमुख के साथ अपनी बातचीत में उन्होंने 'तत्काल तनाव कम करने, बातचीत और कूटनीति के लिए आगे बढ़ने और क्षेत्रीय शांति, सुरक्षा और स्थिरता की शीघ्र बहाली के लिए अपनी अपील दोहराई।' दूसरे शब्दों में वो साम्राज्यवाद के नेताओं में शामिल हो गए जो ईरान की आत्मरक्षा की किसी भी कार्रवाई को 'जंग भड़काने' के रूप में पेश करने वाले बयान जारी कर रहे थे और मांग कर रहे थे कि तेहरान अमेरिकी-इसराइल आक्रामकता के सामने हथियार डाल दे।

इससे पहले 13 जून को भारत ने शांघाई कोऑपरेशन आर्गेनाइजेशन (एससीओ) के साझे बयान से साफ़ तौर पर असहमति जता दी थी जबकि बाकी से सभी नौ देशों ने इस पर रज़ामंदी दे दी थी। इस बयान में ईरान पर इसराइली सैन्य हमले की कड़ी निंदा की गई थी और इसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर और अंततराष्ट्रीय क़ानूनों का खुला उल्लंघन बताया गया था। चीन और रूस की पहल पर 2001 में गठित एससीओ एक क्षेत्रीय राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा गठबंधन है जिसमें पाकिस्तान, भारत, कई मध्य एशियाई देश, बेलारूस और 2023 से ईरान भी शामिल है।

बाद में भारत ने ये कहते हुए अपनी असहमति पर सफ़ाई दी कि साझे बयान पर उसके साथ ठीक से विचार विमर्श नहीं किया गया था और विदेश मंत्रालय के एक बयान का हवाला दिया जिसमें ईरान पर इसराइल के हमले की आलोचना करने वाली कोई बात नहीं कही गई थी।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप गुरुवार, 13 फ़रवरी, 2025 को वॉशिंगटन में व्हाइट हाउस के ईस्ट रूम में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाते हुए। (एपी फोटो/एलेक्स ब्रैंडन) [AP Photo/Alex Brandon]

ईरान के ख़िलाफ़ अमेरिकी-इसराइली जंग को भारत सरकार द्वारा दिया गया सबसे ठोस और महत्वपूर्ण समर्थन, संभवतः 17 जून को मोदी द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को किया गया वह फ़ोन कॉल था, जब वे ईरान के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की योजना बना रहे थे। उससे एक शाम पहले, ट्रंप ने कनाडा में जी-7 शिखर सम्मेलन को बीच में ही छोड़ कर वॉशिंगटन लौट गए थे ताकि अपनी सुरक्षा टीम और पेंटागन के शीर्ष अधिकारियों के साथ मिलकर ईरान पर हमले की योजना को अंतिम रूप दे सकें। ट्रंप ने खुद लगभग सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी कर दी थी।

मोदी के फ़ोन कॉल से कुछ घंटे पहले ही ट्रंप ने ईरान के ख़िलाफ़ एक के बाद एक सोशल मीडिया पोस्ट करके धमकी की बौछार कर दी थी और अंत में आते आते ईरान से 'बिना शर्त आत्मसमर्पण' की मांग कर दी थी।

इन्हीं परिस्थितियों में मोदी ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ भारत की हिंसक साझेदारी की ताक़त को रेखांकित करने के लिए ट्रंप को इस साल के अंत में भारत में होने वाले क्वाड के शीर्ष नेताओं के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। क्वाड चीन विरोधी 'रक्षा संवाद' है जिसकी अगुवाई वॉशिंगटन कर रहा है और इसमें भारत और अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रमुख एशियाई-प्रशांत सहयोगी, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं।

रूस के ख़िलाफ़ अमेरिकी-नेटो जंग का समर्थन करने में मोदी सरकार की विफलता और मॉस्को के साथ शीत युद्ध के समय से चले आ रहे भारत के दीर्घकालिक घनिष्ठ सैन्य-रणनीतिक संबंधों को बनाए रखने पर जोर देने और साथ ही भारी मात्रा में रूसी तेल को रियायती दरों पर खरीदने की संभावना पर जोर देने के बारे में बहुत कुछ कहा गया है।

निश्चित रूप से इसने वॉशिंगटन और नेटो शक्तियों को परेशान किया है, लेकिन भारत ने इसके बदले चीन के संबंध में अमेरिका के साथ अपना झुकाव और बढ़ा दिया है। इसके अलावा, इसराइल के ग़ज़ा युद्ध और व्यापक पश्चिम एशियाई जंग के दौरान, मोदी सरकार ने इस हद तक नेतन्याहू सरकार के साथ संबंध बढ़ाए कि भारत और इसराइल इस अपराध में एक तरह से पार्टनर की तरह काम करने लगे हैं।

इस संदर्भ में, यह याद रखना ठीक होगा कि बाइडन प्रशासन द्वारा प्रचारित और नेतन्याहू द्वारा प्रस्तावित एक 'नए पश्चिम एशिया' के लिए, अमेरिकी योजना के एक अभिन्न हिस्से के रूप में, इसराइल के बंदरगाह हाइफ़ा से होकर गुजरने वाला भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप आर्थिक गलियारा था।

इस 20 महीने की जंग के दौरान, नई दिल्ली ग़ज़ा में इसराइल के सामूहिक नरसंहार और जातीय सफ़ाया अभियान की किसी भी तरह की ठोस निंदा करने से लगातार बचती रही है। 12 जून को, इसराइल द्वारा ईरान पर हमला करने से कुछ ही घंटे पहले, संयुक्त राष्ट्र महासभा में हुए एक हाई-प्रोफ़ाइल मतदान हुआ जिसमें 149 देश थे, जिनमें कनाडा और फ्रांस जैसी कई साम्राज्यवादी शक्तियां भी शामिल थीं, जो ग़ज़ा के फ़िलिस्तीनियों पर चल रहे इसराइली हमले में अपनी संलिप्तता छिपाने की कोशिश कर रही थीं। इस मतदान में ये शक्तिया भीं “तत्काल, बिना शर्त और स्थायी युद्धविराम” और नाकाबंदी किए हुए क्षेत्र के लिए निर्बाध मानवीय सहायता जाने देने के पक्ष में मतदान किया। भारत इनमें शामिल नहीं था। दिसंबर 2023 और दिसंबर 2024 में इसी तरह के प्रस्तावों पर अपनाए गए अपने रुख़ को पलटते हुए उसने मतदान में भाग ही नहीं लिया।

इसराइल भारत के लिए एक प्रमुख हथियार आपूर्तिकर्ता बन गया है और जैसा कि हाल ही में अल जज़ीरा की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है, भारत ने ग़ज़ा युद्ध के दौरान इसराइल को रॉकेट इंजन और विस्फोटकों सहित कई हथियारों का निर्यात किया है, जिसमें चेन्नई से भेजे गए सामान थे और ग़ज़ा में मिसाइल के मलबे पर 'मेड इन इंडिया' का चिह्न लगा हुआ मिला है।

यह सब महत्वपूर्ण होने के बावजूद, संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर भारत के वोट का एक निर्णायक कारक संभवतः वह स्पष्ट समर्थन रहा होगा जो इसराइल ने नई दिल्ली को दिया था जब उसने 7 मई को पाकिस्तान पर दर्जनों विमानों से अवैध हमला किया था, जिससे चार दिनों तक लड़ाई जारी रही और दक्षिण एशिया की परमाणु हथियार संपन्न शक्तियों के बीच एक पूर्ण युद्ध छिड़ने की आशंका पैदा हो गई थी। इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू दुनिया में लगभग अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने भारतीय कार्रवाई का समर्थन किया और उन्होंने यह काम भारतीय हवाई हमलों के चंद घंटों के भीतर किया।

ईरान पर अमेरिकी इसराइली युद्ध में भारत की भागीदारी, भारत-अमेरिकी गठबंधन के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग की लामबंदी की तात्कालिकता को दिखाता है। इसने पहले ही चीन के ख़िलाफ़ वॉशिंगटन के युद्ध अभियान में भारत को अग्रिम देश में ला खड़ा किया है। जबकि भारतीय शासक वर्ग को आक्रामकता और युद्ध के माध्यम से खुद को, क्षेत्रीय दादागीरी स्थापित करने के लिए उकसाया है।

गौरतलब है कि आधिकारिक विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने ईरान पर इसराइल के हमले की निंदा करके कुछ राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की, लेकिन वह युद्ध में वॉशिंगटन के शामिल होने की निंदा करने में विफल रही। ऐसा इसलिए है क्योंकि शासक वर्ग के सभी गुट भारत-अमेरिकी गठबंधन को अपनी वैश्विक रणनीति के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं, जिसमें भारत को चीन के विकल्प के रूप में सस्ते श्रम उत्पादन केंद्र बनाने के उनके प्रयास भी शामिल हैं।

22 जून को, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम समेत पांच स्टालिनवादी और माओवादी दलों ने ईरान पर अमेरिकी बमबारी की निंदा की, लेकिन मज़दूर वर्ग की किसी भी लामबंदी का आह्वान नहीं किया। कांग्रेस पार्टी के सहयोगी दलों और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गुट, इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस यानी इंडिया गठबंधन ने 'शांतिप्रिय लोगों' से अपील की और मोदी सरकार से अपने अमेरिकी-समर्थक, इसराइल-समर्थक रुख़ को बदलने का आह्वान किया।

साम्राज्यवाद के इन राजनीतिक सहयोगियों के विपरीत, वर्ल्ड सोशलिस्ट वेब साइट भारतीय और अंतरराष्ट्रीय मज़दूर वर्ग से आह्वान करती है कि वे वर्ग संघर्ष के तरीक़ों और मज़दूरों की शक्ति और समाजवाद के लिए संघर्ष के माध्यम से ईरान पर साम्राज्यवादी हमले और विकासशील वैश्विक युद्ध का विरोध करें।

Loading