अंग्रेजी के लेख Modi government accelerates violent expulsion of impoverished Muslim refugees का यह हिंदी अनुवाद 23 जून 2025 को प्रकाशित हुआ थाI
भारत की हिंदू-वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार ने हाल के सप्ताहों में बांग्लादेश और म्यांमार के हज़ारों ग़रीब मुस्लिम शरणार्थियों को निष्कासित कर दिया है, जिनमें से कई को बंदूक की नोक पर निकाला गया है।
यह सामूहिक निष्कासन अभियान, भारतीय कश्मीर के पहलगाम में अप्रैल में हुए आतंकवादी हमले के बाद बीजेपी सरकार द्वारा चलाए गए युद्धोन्मादी और सांप्रदायिक हिंसा के अभियान का अभिन्न अंग है। इस अभियान के तहत ही पाकिस्तान पर हमला करने के लिए ग़ैरक़ानूनी 'ऑपरेशन सिंदूर' चलाया गया, जिसकी वजह से दक्षिण एशिया के परमाणु हथियार संपन्न दो देश युद्ध की कगार पर पहुंच गए थे और दोनों ओर से अभी भी उकसाऊ कार्रवाईयां और धमकियां जारी हैं। नई दिल्ली ने कहा है कि भारत सिंधु जल संधि पर कभी वापस नहीं लौटेगा। यह दावा गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले शनिवार को ही दिए एक साक्षात्कार में किया था।
निष्कासन के लिए जिन लोगों को निशाना बनाया गया उनमें रोहिंग्या शरणार्थी और बांग्लादेश से हाल ही में आए ग़रीब आप्रवासी हैं, साथ ही ऐसे बहुत से ग़रीबी से पीड़ित मुस्लिम हैं जो पीढ़ियों से भारत में रहते आए हैं, लेकिन उन्हें 'विदेशी' क़रार दे दिया गया है क्योंकि वे अधिकारियों द्वारा मांगे गए 'जन्म प्रमाण पत्र या राष्ट्रीयता' के दस्तावेज नहीं दिखा सके।
मुस्लिम विरोधी, शरणार्थी विरोधी अभियान में हिंदू लौहपुरुष नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार, उसी तरह के गैंगस्टर जैसे तरीकों का इस्तेमाल कर रही है, जैसा ट्रंप प्रशासन अमेरिका में आप्रवासियों के ख़िलाफ़ अपना रहा है।
अब तक की सबसे जघन्य क्रूरता यह थी कि अधिकारियों ने भारत की राजधानी में पकड़े गए रोहिंग्या शरणार्थियों के एक समूह को म्यांमार के तट से दूर समुद्र में फेंक दिया।
रोहिंग्या ऐतिहासिक रूप से प्रताड़ित किए गए अल्पसंख्यक हैं। साल 2017-18 में, म्यांमार की सैन्य सरकार ने एक क्रूर जातीय सफ़ाया अभियान के तहत लगभग 10 लाख रोहिंग्या पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को उनके घरों से खदेड़ दिया था। उत्पीड़ितों का स्वागत करने के बजाय, मोदी सरकार ने इन 'अवैध प्रवासियों' को अपमान, जेल और निष्कासन का निशाना बनाया।
आठ मई की आधी रात के क़रीब भारतीय नौसेना के जहाज के कर्मचारियों ने 38 रोहिंग्या शरणार्थियों को लाइफ़ सेविंग जैकेट पहनने का आदेश दिया और फिर उन्हें अंधेरे समंदर में कूद जाने को कहा। इन लोगों को दो दिन पहले दिल्ली से पकड़ा गया था।
इस असहाय ग्रुप में महिलाएं, बच्चे और बुज़ुर्ग लोग भी थे। इनमें से कई को तैरना नहीं आता था और या कुछ लोग कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे। सोशिल लीगल इन्फ़ॉर्मेशन सेंटर के क़ानूनी अधिकारी दिलावर हुसैन ने द वॉयर वेबसाइट को बताया कि, इन लोगों को नेवी के जहाज तक ले जाते समय 'बहुत मारा पीटा' गया था।
दिल्ली में झुग्गियों और टेंटों में रहने वाले ये 38 लोग छह मई को पकड़े गए थे, जब वैन वाली गाड़ियों में आए 50 पुलिसकर्मियों ने उन्हें पकड़ा था। शरणार्थियों को बताया गया था कि उन्हें 'बायोमेट्रिक वेरिफ़िकेशन' के लिए साथ चलना होगा। यह एक जाल था क्योंकि इसी झांसे में आए बहुत से लोगों को हिरासत में ले लिया गया था और जेल में डाल दिया गया था।
इन 38 लोगों की 'आंख पर पट्टी बांध कर' और उनके 'हाथ और पैर बांध कर' हवाई जहाज से पोर्ट ब्लेयर ले जाया गया था, जोकि अंडमान द्वीप समूह की राजधानी है। यह ब्रिटिश उपनिवेशवादी प्रशासन की एक कुख्यात जगह रही है जहां उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में भाग लेने वाले राजनीतिक क़ैदियों को रखा जाता था और उनके साथ बर्बर तरीके से उत्पीड़न किया जाता था। यह सज़ा देने के लिए एक कॉलोनी की तरह इस्तेमाल किया जाता था।
इसके बाद, रोहिंग्या शरणार्थियों को मवेशियों की तरह भारतीय नौसेना के जहाज में भरकर म्यांमार के दक्षिणी तट के पास अंडमान सागर में ले जाया गया और आधी रात को अंधेरे समंदर में फेंक दिया गया।
इस अत्याचार के प्रत्यक्षदर्शी, 22 वर्षीय मछुआरे, न्ये नेगे सो ने द स्ट्रेट टाइम्स को बताया, 'रात के लगभग 1 बज रहे थे। अपनी नाव से मैंने देखा कि एक जहाज़ कई लोगों को समुद्र में उतार रहा है। मैं उनकी चीखें सुन सकता था।'
'वे लाइफ़ जैकेट पहने हुए थे, लेकिन वहां पानी दो मीटर गहरा था। उसमें महिलाएं और बुज़ुर्ग लोग थे, जो तैर नहीं सकते थे। हमारे गांव की एक नाव से लंबी रस्सी फेंकी गई। मैंने देखा कि लोग उस रस्सी को पकड़कर किनारे तक पहुंचे।'
गांव वालों ने बचाए गए शरणार्थियों को खाना, पानी और सूखे कपड़े दिए। रोहिंग्या ने गांव वालों को बताया कि उन्हें बिना किसी क़ानूनी प्रक्रिया अपनाए ज़बरदस्ती निष्कासित कर दिया गया था।
म्यांमार में मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष अधिकारी टॉम एंड्रयूज ने भारतीय अधिकारियों की 'अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ज़रूरतमंद लोगों के जीवन और सुरक्षा के प्रति घोर उपेक्षा' के लिए निंदा की है।
बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने आगे कहा, 'ऐसी क्रूर कार्रवाई मानवीय शालीनता का अपमान होगी और ज़बरदस्ती वापस न भेजने के सिद्धांत का गंभीर उल्लंघन होगी। यह अंतरराष्ट्रीय क़ानून का एक बुनियादी सिद्धांत है जो देशों को उन व्यक्तियों को ऐसे क्षेत्र में वापस भेजने से रोकता है जहां उन्हें अपने जीवन या स्वतंत्रता के लिए ख़तरा हो।'
एंड्रयूज ने अब भारत सरकार के 'अनुचित, अस्वीकार्य कारनामों' की जांच शुरू कर दी है।
रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ सरकार के बेशर्मी वाले आपराधिक और असंवैधानिक व्यवहार को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी समर्थन दिया है। पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार बीजेपी सरकार और हिंदू वर्चस्ववादी धुर-दक्षिणपंथियों के अपराधों को मंजूरी दी है, जिसमें मोदी सरकार को बाबरी मस्जिद स्थल पर एक हिंदू राष्ट्रवादी धर्मस्थल बनाने का 'आदेश' देना भी शामिल है, जिसे 1992 में बीजेपी और उसके संरक्षक संगठन आरएसएस की ओर से संगठित और उकसाए गए कट्टरपंथियों ने उसी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की स्पष्ट अवहेलना करते हुए ढहा दिया था।
16 मई को सुप्रीम कोर्ट ने जबरन निष्कासित रोहिंग्या शरणार्थियों के रिश्तेदारों द्वारा दायर एक याचिका को अवमानना के साथ ख़ारिज कर दिया, जिसमें इस तरह के अमानवीय निर्वासन पर तत्काल रोक लगाने की मांग की गई थी। 16 मई को जारी एक फैसले में, न्यायाधीशों ने याचिकाकर्ता वकील को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा, 'जब देश एक कठिन दौर से गुज़र रहा है (7 मई को भारत द्वारा पाकिस्तान पर किए गए हमले का हवाला देते हुए), तो आप ऐसे मनगढ़ंत विचार लेकर आते हैं।'
जब याचिकाकर्ताओं के वकीलों ने अदालत को बताया कि कई शरणार्थियों के पास संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त द्वारा जारी पहचान पत्र हैं, तो उन्हें कठोर शब्दों में ये कहते हुए इसे ख़ारिज कर दिया कि:
'अगर वे (रोहिंग्या) सभी विदेशी हैं और यदि वे विदेशी अधिनियम के अंतर्गत आते हैं, तो उनके साथ विदेशी अधिनियम के अनुसार ही व्यवहार किया जाएगा।' दूसरे शब्दों में, उन्हें उस अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत शरण पाने का अधिकार नहीं है, जिसका भारत समर्थन करने का दावा करता है, भले ही वे विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त और उत्पीड़ित जातीय-सफाए के अभियान से बचकर भागे हों; और इसलिए उन्हें निर्दयतापूर्वक निष्कासित किया जा सकता है।
रोहिंग्या शरणार्थियों को धर-दबोचा, खदेड़ना और सचमुच समुद्र में फेंक दिया जाना, अप्रैल के अंत में कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले के बाद मोदी सरकार द्वारा चलाए गए मुस्लिम-विरोधी सांप्रदायिक उकसावे के एक घृणित अभियान की ही एक कड़ी है। आतंकवादियों पर कथित कार्रवाई के तहत, मोदी सरकार और कई बीजेपी शासित राज्य सरकारों ने हज़ारों निर्दोष मुसलमानों को धर-दबोचा और हिरासत में ले लिया। भारत के नियंत्रण वाले जम्मू-कश्मीर में 'संदिग्ध आतंकवादियों' के परिवारों के कम से कम दस घरों पर बुलडोज़र चला दिया गया।
मोदी सरकार ने 'अवैध' बांग्लादेशी आप्रवासियों के ख़िलाफ़ भी अपने अभियान को तेज़ कर दिया है। हज़ारों लोगों को निष्कासित किया जा चुका है, जिन लोगों ने इसका विरोध किया उन्हें भारतीय सीमा सुरक्षा पुलिस ने बंदूक दिखाकर धमकाया। इनमें से कई निष्कासित लोग भारत में दशकों से रह रहे थे। बाकी भारत में ही जन्मे थे और अपनी पूरी ज़िंदगी भारत में ही बिताई थी।
बीबीसी ने असम के 51 वर्षीय स्कूल शिक्षक खैरुल इस्लाम से बात की, जिन्हें जबरन निष्कासित कर दिया गया था। भारतीय अधिकारियों ने उचित प्रक्रिया और भारतीय नागरिक होने के उनके दावे दोनों को ही बेरहमी से नज़रअंदाज़ कर दिया था।
इस्लाम ने बीबीसी को बताया, 'मैंने कहा, मैं नहीं जाऊंगा। उन्होंने मुझे पीटा, मेरे हाथ बांध दिए और आंखों पर पट्टी बांध दी। उन्होंने मुझसे ख़ामोश रहने को कहा।'
शारीरिक रूप से विकलांग महिला हज़रुन खातून 62 साल की हैं। उन्होंने अपना पूरा जीवन भारत में बिताया है, उन्हें बंदूक की नोक पर भारत से निकाल दिया गया। फिर उन्हें बांग्लादेशी अधिकारियों ने हिरासत में ले लिया और बाद में उन्हें नदी पार करके जंगल के रास्ते पैदल भारत लौटने का आदेश दिया।
भारतीय सीमा पुलिस के हाथों अपनी यातनाओं के बारे में बताते हुए, खातून ने गार्डियन अख़बार को बताया, 'हमने विरोध किया कि हम भारतीय हैं, हमें बांग्लादेश में क्यों जाना चाहिए? लेकिन उन्होंने हमें बंदूकों से धमकाया और कहा, 'अगर तुम दूसरी तरफ नहीं गए तो हम तुम्हें गोली मार देंगे।' जब हमने भारतीय सीमा से चार गोलियों की आवाज़ सुनी, तो हम बहुत डर गए और जल्दी से सीमा पार चले गए।'
बांग्लादेश स्थित मानवाधिकार संगठन 'ओधिकार' की तस्कीन फहमीना ने गार्डियन को बताया, 'उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करने के बजाय, भारत अपने ही देश के मुख्य रूप से मुसलमानों और निम्न आय वाले समुदायों को बिना किसी सहमति के बांग्लादेश में धकेल रहा है।'
मोदी और उनके दाहिने हाथ गृह मंत्री अमित शाह का एक लंबा और ख़ून खराबे वाला आपराधिक इतिहास रहा है। मोदी ने 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शासन किया और उन्हें 2002 में मुसलमानों के ख़िलाफ़ जनसंहार की योजना बनाने के लिए 'गुजरात के कसाई' के रूप में जाना जाता है, जिसमें 2,000 या उससे अधिक लोग मारे गए और लाखों लोग बेघर हो गए।
अमित शाह, जो पहले गुजरात में मोदी के तानाशाह दाहिने हाथ हुआ करते थे, एक विशिष्ट राजनीतिक गुंडा हैं। 2011 में, भारत की राष्ट्रीय जाँच एजेंसी, केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) ने उन पर 'पुलिस-अपराधी गठजोड़' का नेतृत्व करने का आरोप लगाया था।
भाजपा के 2019 के आम चुनाव प्रचार के दौरान, शाह ने पश्चिम बंगाल में एक सांप्रदायिकता भड़काने वाला भाषण दिया था। इसमें उन्होंने म्यांमार से आए शरणार्थियों और बांग्लादेश से आए मुस्लिम 'घुसपैठियों' की निंदा की थी और कहा था, 'घुसपैठिए बंगाल की धरती में दीमक की तरह हैं। भारतीय जनता पार्टी की सरकार एक-एक करके घुसपैठियों को उठाकर बंगाल की खाड़ी में फेंक देगी।'
यह सब उस सांप्रदायिक-फ़ासीवादी विचारधारा की ओर इशारा करता है जो बीजेपी और आरएसएस को प्रेरित करती है और जिसे भारतीय पूंजीपति वर्ग ने तेज़ी से अपना लिया है। 1947 में उपमहाद्वीप के प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक विभाजन तक बांग्लादेश भारत का अभिन्न अंग था, और बांग्लादेश और भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के लोग एक साझा भाषा, संस्कृति और इतिहास साझा करते हैं।
इसी तरह, रोहिंग्याओं का बंगालियों के साथ संपर्क का एक लंबा इतिहास है, जो 15वीं शताब्दी से शुरू होता है। दक्षिण एशिया के ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिपतियों और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व मुस्लिम लीग द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले पूंजीपति वर्ग के प्रतिद्वंद्वी गुटों द्वारा थोपे गए विभाजन ने अतार्किक, सांप्रदायिक रूप से परिभाषित राष्ट्रीय सीमाओं का निर्माण किया है, जिसने आर्थिक विकास को बाधित किया है, देशों के बीच प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा दिया है और परस्पर जुड़े लोगों के मुक्त आवाजाही में कृत्रिम बाधाएँ डाली हैं।
शरणार्थियों का अपमान और अपराधीकरण एक वैश्विक परिघटना है। यूरोपीय सरकारें पिछले एक दशक में अफ्रीका से आए 32,000 से ज़्यादा हताश शरणार्थियों को भूमध्य सागर में मरने देने की दोषी हैं। फ़ासीवादी ट्रंप प्रशासन नाज़ी गेस्टापो की तरह प्रवासियों का अपहरण करके और लॉस एंजेलिस की सड़कों पर सेना तैनात करके उनके ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ रखा है।
शरणार्थियों और आप्रवासियों पर हमला पूरे मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ हमला है। दुनिया भर की पूंजीवादी सरकारें इसका इस्तेमाल सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने, मज़दूर वर्ग को बांटने और राज्य के दमनकारी तंत्र के निर्माण को सही ठहराने के लिए करती हैं।
इस बर्बरता का सिर्फ एक ही उत्तर है क्रांति। आप्रवासियों और उनके सामाजिक एवं लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा, भारत में, हर देश की तरह, मज़दूर वर्ग को मज़दूरों की ताक़त और सामाजिक समानता के लिए लड़ने वाली एक स्वतंत्र राजनीतिक ताक़त के रूप में संगठित करने की ज़रूरत है।