यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के Capitulating to Modi’s war-mongering, India’s unions cancel May 20 general strike मूल लेख का है, जो 16 मई 2025 को प्रकाशित हुआ थाI
हिंदू वर्चस्ववादी बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार और पूरे भारतीय सत्ताधारी वर्ग द्वारा पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भड़काए गए युद्धोन्माद के आगे झुकते हुए केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के ज्वाइंट प्लेटफ़ॉर्म और अन्य सेक्टरों के स्वतंत्र फ़ेडरेशनों और एसोसिएशनों (जेपीसीटीयूएफ़) ने 20 मई को तय एक दिवसीय आम हड़ताल को रद्द कर दिया।
20 मई की राष्ट्रव्यापी हड़ताल, पूरे भारत के करोड़ों वर्करों को, वर्गीय युद्ध के तहत चलाए जा रहे उन हमलों के ख़िलाफ़ सड़क पर ला दिया होता, जिसे कि हिंदू लौहपुरुष नरेंद्र मोदी की सरकार भारतीय पूंजीपतियों और विदेशी पूंजी की ओर से थोप रही है।
हालांकि स्टालिनवादी, बड़े व्यवसाय को शह देने वाली कांग्रेस पार्टी के समर्थक और अन्य दक्षिणपंथी नौकरशाहों वाले जेपीसीटीयूएफ़ नेतृत्व का इरादा ऐसा बिल्कुल नहीं था, लेकिन हड़ताल से उस उग्र, सांप्रदायिक रूप से गरम राजनीतिक माहौल पंचर हो गया होता, जिसे विपक्षी दलों और मीडिया की मदद से सरकार ने खूब भड़का रखा है।
बिल्कुल ठीक इसी वजह से जेपीसीटीयूएफ़ ने गुरुवार को एक मीटिंग में इसे रद्द कर दिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम के नेतृत्व वाले सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू), कांग्रेस पार्टी से संबद्ध इंडियन नेशनल ट्रेड्स यूनियन कांग्रेस (इंटक) और जेपीसीटीयूएफ़ में शामिल अन्य आठ राष्ट्रीय मज़दूर संगठनों के नेता अब कह रहे हैं कि एक दिवसीय हड़ताल लगभग दो महीने बाद 9 जुलाई को होगी।
जेपीसीटीयूएफ़ ने पाकिस्तान के साथ प्रतिक्रियावादी रणनीतिक संघर्ष में भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रति अपने समर्पण और समर्थन की साफ़ साफ़ घोषणा के साथ इस फ़ैसले को सही ठहराया है, और खुद को 'देश के ज़िम्मेदार देशभक्त नागरिकों का एक अभिन्न अंग' घोषित किया है।
जेपीसीटीयूएफ़ के बयान में कहा गया है कि गुरुवार की बैठक में 'देश भर में मौजूदा स्थिति पर उचित विचार किया गया' और इसमें छह दिन पहले 8 मई को भारत अधिकृत कश्मीर के 'पहलगाम में हुए जघन्य आतंकवादी हमले' की जेपीसीटीयूएफ़ ने अपनी बैठक में निंदा की है।
बिना सबूत दिए ही मोदी सरकार ने आनन फानन में पाकिस्तान को 22 अप्रैल के पहलगाम हमले के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया।
जब आठ मई को जेपीसीटीयूएफ़ के नेता मिले, उस समय तक भारत ने हमले का बदला लेने के नाम पर, दशकों में पहली बार हुए पाकिस्तान पर सबसे बड़े सैन्य हमले को अंजाम दे दिया था और उपमहाद्वीप के दो परमाणु हथियार संपन्न देश तेज़ी से पूर्ण युद्ध की ओर खिंचे जाने लगे थे।
लेकिन जेपीसीटीयूएफ़ नेताओं ने 8 मई या 15 मई की बैठक में जारी किए गए बयान में पाकिस्तान पर भारत के लापरवाह और स्पष्ट रूप से अवैध हमले की न तो आलोचना का एक शब्द कहा और न ही भारत के मज़दूरों से पाकिस्तान में अपने वर्गीय भाइयों और बहनों के साथ मिलकर आक्रमण, युद्ध और प्रतिद्वंद्वी दक्षिणपंथी सांप्रदायिक सरकारों और पूंजीवादी कुलीन वर्ग का विरोध करने की अपील की।
आम हड़ताल को नाकाम करके और खुद को 'ज़िम्मेदार देशभक्त नागरिकों का एक अभिन्न अंग' घोषित करके - जो कि 'आतंकवाद' और पाकिस्तान में इसके कथित 'मास्टरमाइंडों' के ख़िलाफ़ भाजपा के नेतृत्व वाला 'राष्ट्रीय' धर्मयुद्ध का 'वाम' पक्ष है, यूनियनों ने हड़पाऊ विदेश नीति के हितों और मज़दूर वर्ग पर उनके युद्ध, दोनों मामलों में मोदी सरकार और भारतीय शासक वर्ग के ही हाथ को मजबूत किया।
और यह ऐसे हालात में हुआ, जब मोदी और बीजेपी सरकार, कॉरपोरेट मीडिया की उकसाऊ वाहवाही के लिए, 10 मई को भारत-पाकिस्तान के बीच बड़ी झड़पों के चौथे दिन हुए अस्थाई संघर्ष विराम को उकसावे भरे बयानों और कार्रवाइयों के साथ ख़तरे में डाल रहे हैं। इनमें यह घोषणा करना भी शामिल है कि पाकिस्तान पर भारत का सैन्य हमला, 'ऑपरेशन सिंदूर', अभी खत्म नहीं हुआ है, केवल 'रोका गया' है; यह घोषणा करना कि पाकिस्तान के साथ कोई भी बातचीत इस्लामाबाद द्वारा आतंकवाद को समर्थन देने और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भारत को सौंपने से संबंधित नई दिल्ली की मांगों पर चर्चा करने तक ही सीमित रहेगी; और सिंधु जल संधि निलंबित रहेगी।
जेपीसीटीयूएफ़ ने 18 मार्च को आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में 20 मई को आम हड़ताल का आह्वान करने का फैसला किया था ताकि देश भर में नए, मज़दूर-विरोधी लेबर कोड्स को लागू करने के भाजपा सरकार के कदमों, निजीकरण और खर्च कटौती अभियानों और मज़दूरों और किसानों को प्रभावित करने वाले अन्य ज्वलंत मुद्दों का विरोध किया जा सके। सम्मेलन में विशेष रूप से भाजपा सरकार की 'मज़दूर-विरोधी, जन-विरोधी' नीतियों के कारण मज़दूरों और व्यापक आबादी के सामने आने वाली 'ख़तरनाक स्थिति' की चेतावनी दी गई थी।
'राष्ट्रीय एकता' को बढ़ावा देने के अपने प्रयास को जारी रखते हुए, 20 मई की हड़ताल को रद्द करने की घोषणा करते हुए जेपीसीटीयूएफ़ के बयान में सरकार और मालिकों की इस बात के लिए आलोचना की गई है कि वे यूनियन नौकरशाही के साथ मिलकर काम नहीं कर रहे हैं।
बयान में इस बात पर हैरानी और आक्रोश ज़ाहिर किया गया कि ‘पूरे देश के सामने इस कठिन समय’ में सरकार और कंपनी मालिकान, कामगार लोगों पर अपने हमले तेज़ कर रहे हैं। स्टालिनवादी और यूनियन के अन्य नौकरशाहों ने एलान किया कि ‘यह भयावह है कि आतंकवादी जनसंहार और उसके परिणामस्वरूप होने वाली घटनाओं के कारण देश में व्याप्त ऐसी गंभीर स्थिति के बीच भी, केंद्र और कई राज्यों की सरकारों द्वारा सक्रिय रूप से समर्थित मालिक वर्ग, उद्योग जगत में मज़दूरों और कर्मचारियों पर अपने हमले जारी रखे हुए हैं।’
बयान में आगे कहा गया है, 'काम के घंटे एकतरफ़ा बढ़ाए जा रहे हैं; वैधानिक न्यूनतम मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा लाभों का उल्लंघन किया जा रहा है। मज़दूरों, विशेष रूप से ठेका मज़दूरों की खुलेआम छंटनी की जा रही है। ये कुछ और नहीं बल्कि कुख्यात लेबर कोड्स को पिछले दरवाजे से लागू करने के घटिया प्रयास हैं।'
इसी तरह, 8 मई के अपने बयान में, जेपीसीटीयूएफ़ ने 'सांप्रदायिक संगठनों' की आलोचना की, जो भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत भड़का रहे हैं, असल में यह बीजेपी, आरएसएस और उनके नेतृत्व वाले हिंदू वर्चस्ववादी संगठनों के नेटवर्क का एक मौन संदर्भ भर था। और इसमें यह नज़रिया शामिल था कि वे भारतीय 'राष्ट्र' को कमज़ोर कर रहे हैं, न कि भारत और दक्षिण एशिया में मज़दूर वर्ग को बांटने का काम कर रहे हैं।
सरकार और शासक वर्ग के प्रतिक्रियावादी 'राष्ट्रीय एकता' अभियान के आगे हथियार डालने के बाद, और यहां तक कि जब उन्हें यह स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा है कि वे वर्गीय युद्ध लड़ रहे हैं, जेपीसीटीयूएफ़ के नेता कातर भाव से अपील कर रहे हैं कि वे 'ट्रेड यूनियन आंदोलन के सकारात्मक नज़रिए का ही पालन कर रहे हैं और लेबर कोड्स और काम के हालात और मज़दूरों के अधिकारों से संबंधित अन्य क़ानूनी मांगों के मामले में किसी भी एकतरफ़ा जल्दबाज़ी वाले क़दम से बच रहे हैं।'
इसके साथ ही सरकार और कंपनी मालिकों से अपील की गई कि वे वर्ग संघर्ष को दबाने में अपनी सेवाओं का अधिक व्यवस्थित इस्तेमाल करें, जिसमें भारतीय लेबर कांफ़्रेंस को फिर से आयोजित करना शामिल है, जो एक कॉर्पोरेटवादी संस्था है जिसे मोदी सरकार ने कई सालों से आयोजित करने से इनकार किया है। बयान में कहा गया है कि, 'ट्रेड यूनियनों द्वारा बार-बार मनाए जाने के बावजूद, सरकार ने केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से मिलने और उनसे सलाह मशविरा करने या इंडियन लेबर कांफ़्रेंस आयोजित करने की जहमत नहीं उठाई, जबकि देश के सभी क्षेत्रों से हड़ताल के लिए नोटिस भेजे गए थे।'
यूनियन नेताओं को अच्छे से पता है कि बीजेपी की निवेशक परस्त नीतियों और मज़दूरों के शोषण को बढ़ाने की बड़ी कंपनियों की ज़ोर ज़बरदस्ती से मज़दूरों और ग्रामीण ग़रीबों में बड़े पैमाने पर आक्रोश है। हाल के सालों में ग़रीबी के स्तर की मज़दूरी और शोषणकारी ठेका मज़दूरी वाली नौकरियों के ख़िलाफ़, विस्फ़ोटक हड़ताल के स्तर के कई संघर्ष फूट पड़े हैं, ख़ासकर भारत की वैश्विक रूप से जुड़ी हुई मैन्युफ़ैक्चरिंग इंडस्ट्रीज़ में। रणनीतिक रूप से आर्थिक क्षेत्रों की चंद कंपनियों समेत सभी सरकारी कंपनियों के निजीकरण की सरकारी योजना के ख़िलाफ़ भी लोगों का ग़ुस्सा बढ़ रहा है।
बीजेपी जो श्रम क़ानूनों में कथित 'सुधार' कर रही है, वह मज़दूर वर्ग पर हमले की मूल बात है। इससे प्रत्यक्ष रूप से सभी उद्योगों में ठेका मज़दूरी की खुली इजाज़त मिल जाएगी और यूनियन में संगठित करना या हड़ताल करने में वर्करों के सामने ऐसी दीवार खड़ी हो जाएगी जिससे हड़ताल करना ग़ैरक़ानूनी और असंभव हो जाएगा। कार्यस्थल पर सुरक्षा के बदलाव बहुत सीमित दायरे में हैं और केवल उन्हीं कंपनियों में लागू होंगे जहां कम से कम 250 वर्कर काम करते हों। इस तरह भारत के 90 प्रतिशत मज़दूरों को इस सुरक्षा से बाहर कर दिया जाएगा। इसके अलावा 300 मज़दूरों से कम संख्या वाली फ़ैक्ट्रियों कारखानों में मालिक, वर्करों को हायर एंड फ़ायर यानी मनमर्जी से नौकरी पर रख या निकाल सकते हैं या कंपनी पर पूरी तरह ताला लगा सकते हैं। जबकि पहले ऐसा करने के लिए सरकार के इजाज़त लेनी पड़ती थी।
बड़े पैमाने पर मज़दूरों के विरोध को रोकने के लिए, यूनियनों ने समय-समय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय हड़तालों का आह्वान किया है। उन्होंने ऐसा करते हुए मज़दूर वर्ग को राजनीतिक रूप से कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले विपक्ष का पिछलग्गू बनाए रखने की पूरी कोशिश की है, जो मोदी और उनकी बीजेपी की जगह एक वैकल्पिक दक्षिणपंथी सरकार लाना चाहता है और जो निवेशक परस्त 'सुधार' और नई दिल्ली और वॉशिंगटन के बीच, प्रतिक्रियावादी चीन विरोधी युद्ध गठबंधन के लिए कम प्रतिबद्ध नहीं है।
इस सबमें स्टालिनवादी संसदीय दलों, सीपीएम और सीपीआई और उनके संबंधित ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशनों, सीटू और एटक की भूमिका महत्वपूर्ण है।
सीपीएम और सीपीआई, अपने यूनियन सहयोगियों की तरह, कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले विपक्षी ब्लॉक, इंडिया नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस (इंडिया) में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पाकिस्तान को 'आक्रामक' क़रार देने और उसपर चार दिनों तक हुए सैन्य हमले की सराहना करने में सरकार के पीछे खड़ी हो गई हैं।
जेपीसीटीयूएफ़ के नेताओं द्वारा 20 मई की हड़ताल को रद्द करने का फ़ैसला यूनियनों और स्टालिनवादी पार्टियों की भूमिका को रेखांकित करता है, जो बड़े व्यवसाय के एजेंट और पूंजीवादी शासन के महत्वपूर्ण हाथ पैर हैं। उन्हें डर है कि मौजूदा हालात में, सीमित एक दिवसीय आम हड़ताल भी - मज़दूरों को अपनी मांगों को रखने और शासक वर्ग द्वारा प्रचारित सभी सांप्रदायिक और जातिगत रेखाओं के पार मज़दूरों की ठोस एकता का प्रदर्शन करने का एक साधन देकर पाकिस्तान के ख़िलाफ़ शासक वर्ग की 'राष्ट्रीय एकता' के ढोंग को गंभीर रूप से कमजोर कर सकती है।
भारत में मज़दूर, दुनिया भर की तरह, पूंजीवादी सत्ताधारी वर्ग के विरोध में अपने वर्गीय हितों को तब तक लागू नहीं कर सकते, जब तक कि वे विश्व मंच पर उनके प्रतिक्रियावादी महाशक्ति बनने वाले सभी हितों और हड़पाऊ कार्रवाइयों का विरोध नहीं करते, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों के साथ अपने संघर्षों को एकजुट करने की कोशिश नहीं करते।
भारत में मज़दूरों को अपने सामाजिक और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के संघर्ष को, सत्ताधारी वर्ग की सैन्य कार्रवाईयों, साज़िशों, सांप्रदायिक उकसावे और युद्धोन्माद के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ जोड़ना होगा। उन्हें साम्राज्यवाद, प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रीय पूंजीपतियों के भ्रष्ट शासन और उनकी सांप्रदायिक राज्य-व्यवस्था के ख़िलाफ़ और दक्षिण एशिया के संयुक्त समाजवादी राज्यों के निर्माण की आम लड़ाई में, पाकिस्तान के मज़दूरों और मेहनतकशों के साथ अपनी वर्गीय एकता बनानी होगी।