यह हिंदी अनुवाद अंग्रेजी के मूल का Modi imposes austerity budget as social inequality continues to grow at torrential pace जो 17 फ़रवरी 2025 को प्रकाशित हुआ थाI
पिछले साल के आम चुनाव के बाद, जिसमें बड़े उद्योगों की कट्टर सरपरस्ती वाली और हिंदू बर्चस्ववादी बीजेपी ने लोकसभा में अपना बहुमत खो दिया था और विपक्षी इंडिया गठबंधन और ख़ासकर इसका वाम धड़ा जोकि विभिन्न स्टालिनवादी और माओवादी पार्टियों से मिलकर बना है, इन्होंने दावा किया कि सरकार को जो सज़ा मिली है, उसके बाद वह जनता की बात को सुनेगी।
यह एक फ़्रॉड था, जिसका मकसद था सत्ता तंत्र की राजनीति के प्रतिक्रियावादी खांचे के अंदर बड़े पैमाने पर बढ़ती बेरोज़गारी, भारी ग़रीबी और बीजेपी के लगातार साम्प्रदायिक उकसावेबाज़ी के ख़िलाफ़ जनता के बढ़ते गुस्से को नियंत्रित करना और नरेंद्र मोदी और उनकी बीजेपी को एक दक्षिणपंथी पूंजीवादी सरकार से बदलने की अपनी कोशिशों के लिए इसका फ़ायदा उठाना। इस गठबंधन की नीतियां, मोदी की 'निवेश परस्त' नीतियों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ भारत की 'वैश्विक रणनीतिक साझेदारी' के मुक़ाबले कहीं से कमतर नहीं हैं।
तबसे आठ महीने हो गए हैं, बीजेपी सरकार ने कामकाजी लोगों के सामाजिक और लोकतांत्रिक अधिकारों के ख़िलाफ़ अपना उत्पात जारी रखा हुआ है।
इस महीने की शुरुआत में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2025-26 वित्त वर्ष का बजट, संसद में पेश किया था, जिसमें कारपोरेट इंडिया के लिए बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी गई, मुठ्ठी भर संपन्न लोगों के एक वर्ग के लिए इनकम टैक्स में छूट दी गई और मिलिटरी खर्च में तेज़ वृद्धि की गई जबकि भारत के ग़रीब और ग्रामीण मेहनतकश आबादी के लिए होने वाले सामाजिक खर्च में कटौती कर दी गई।
फिर भी सीतारमण जोकि 2019 से वित्त मंत्री हैं, उनका दावा था कि यह बजट 'जनता द्वारा और जनता के लिए' था। लेकिन वास्तव में यह बजट गौतम अदानी, मुकेश अंबानी, टाटा और बिड़ला परिवारों जैसे अरबपति पूंजीवादी कुलीनों (ओलिगार्क) के लिए था, जिनकी संपत्ति पिछले एक चौथाई सदी में दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ी और इसका श्रेय कांग्रेस और बीजेपी की अगुवाई वाली सरकारों की नीतियों को जाता है। इसमें सार्वजनिक संपत्तियों की अंधाधुंध बिक्री, कारपोरेट के टैक्स में भारी कटौती और उनको दी जाने वाली अन्य रियायतें और सरकार द्वारा अनिश्चित कांट्रैक्ट लेबर रोज़गार को बढ़ावा देना भी शामिल है।
अपने बजट के चरित्र के “जनता समर्थक“ होने के कथित सबूत के तौर पर सीतारमण ने इनकम टैक्स छूट को की सीमा 12 लाख रुपये तक बढ़ाने को बताया। ऐसे लोगों को इनकम टैक्स नहीं देना पड़ेगा, बशर्ते वे एक विशेष टैक्स फ़ॉर्म भरते हों। कारपोरेट मीडिया के अधिकांश हिस्से ने दावा किया कि यह 'मिडिल क्लास' यानी मध्य वर्ग के लिए इनकम टैक्स 'बोनांज़ा' है।
लेकिन असलियत में यह धुंआं और भ्रम है। भारतीयों की एक बड़ी संख्या कोई टैक्स अदा नहीं करती, क्योंकि उनकी कमाई उतनी नहीं है। साल 2024 में एक अरब 40 करोड़ की आबादी वाले देश में केवल 8.6 करोड़ लोगों ने ही इनकम टैक्स रिटर्न भरा था।
अभी तक इनकम टैक्स की सीमा सात लाख रुपये से अधिक कमाई करने वालों तक ही थी, जोकि भारत के सालाना औसत आय तीन लाख 24 हज़ार 680 रुपये का दोगुना है। यहां बताना ज़रूरी है कि यह टैक्स छूट उन्हीं के लिए है जो सरकार के 'न्यू टैक्स रिजीम' (एनटीआर) का इस्तेमाल करते हैं। इसे 2020-21 में लाया गया था, जिसमें 'ओल्ड टैक्स रिजीम' के मुकाबले टैक्स की दर कम है, लेकिन सरलीकरण के नाम पर यह बहुत सारी छूटों और कटौतियों को ख़त्म कर देता है।
सीतारमण और कारपोरेट मीडिया में तमाम सरकारी चीयरलीडर्स ने दावा किया कि इनकम टैक्स छूट की सीमा में वृद्धि मध्य वर्गीय उपभोक्ता खर्च में जान डालेगी और इस तरह भारत के आर्थिक विकास दर को भी बढ़ाएगी। असलियत में, इससे खपत में जो भी सुधार होने वाला है, वह बहुत सीमित होगा क्योंकि हाल के सालों में खाने पीने और अन्य चीज़ों के दामों में तेज़ बढ़ोत्तरी ने यहां तक कि संपन्न मध्य वर्ग को भी काफ़ी निचोड़ कर रख दिया है।
घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के दबावों के चलते वित्त मंत्री ने अपने बजट में वादा किया है कि 'ईज़ ऑफ़ डूईंग' बिज़नेस को बढ़ाया जाएगा और इसके लिए पर्यावरणीय नियमों को नज़रअंदाज़ करने या उन्हें ख़त्म करने और अन्य नियमों को ढीला किया जाएगा, जो निजी मुनाफ़े को बढ़ाने के रास्ते में आड़े आते हैं। पहले ही सरकार ने देश के श्रम क़ानूनों को इस हद तक रद्दी बना दिया है कि बड़ी कंपनियों में काम करने वाले वर्कर भी मनमर्ज़ी से हटाए जा सकते हैं और मालिक, परमानेंट वर्करों की जगह ठेका मज़दूरों की अब आज़ाद होकर भर्ती कर सकते हैं।
वैश्विक आर्थिक प्रतिकूल परिस्थियों, कमज़ोर पूंजी निवेश, उपभोक्ता ख़र्च में कमज़ोर वृद्धि के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर लड़खड़ानी शुरू हो गई है और ख़ासकर छोटे भारतीय निगमों, विदेशी निवेशकों और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने बजट पेश होने से पहले स्पष्ट कर दिया था कि उन्हें मोदी सरकार से अच्छे ख़ासे वित्तीय प्रोत्साहन की उम्मीद है।
ऐसा करने के साथ साथ, उन्होंने सरकार पर 'राजकोषीय संगठन' को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया, यानी जीएनपी (सकल राष्ट्रीय उत्पाद) अनुपात की तुलना में बजट घाटे को कम करना और इसके लिए ख़ासकर दामों में दी जा रही रियायतों और अन्य 'पुनर्वितरण' के उपायों में खर्च कटौती को तेज़ किया जाए।
कुछ अनुमानों के अनुसार, मार्च में समाप्त हो रहे 2024-25 वित्त वर्ष में भारत की विकास दर 6.2 प्रतिशत की सीमा तक नीचे आ सकती है। हालांकि अन्य विकसित पूंजीवादी देशों की विकास दर के मुक़ाबले यह बहुत अधिक है, लेकिन व्यापक रूप से माना जाता है कि हर साल नौकरी चाहने वालों की तादाद को काम देने के लिए भारत को अपनी वार्षिक विकास दर को आठ प्रतिशत से अधिक रखना होगा।
यह बजट बड़े उद्योगों के लिए प्रोत्साहन देने और सामाजिक खर्च के आवंटन में कटौती करने के परस्पर विरोधी अनिवार्यताओं को पूरा करने के लिए बनाया गया है।
पिछले साल के बजट में, सरकार ने सालों के “रोज़गार विहीन“ विकास के फेनोमिना के प्रति चिंतित होने का दिखावा किया था और नए कर्मचारियों, ट्रेनी और अप्रेंटिस की भर्ती में जान फूंकने के लिए तमाम रियायतों की घोषणा की थी। एक फ़रवरी के अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री के पास रोजगार सृजन के बारे में कहने के लिए वाक़ई कुछ नहीं था, हालांकि इस बात के कोई संकेत नहीं मिलते कि पिछले साल की घोषणाओं ने बेरोज़गारी संकट को ज़रा भी चोट पहुंचाई हो, जबकि इस संकट से करोड़ों लोग बेरोज़गार हैं जिसमें लाखों यूनिवर्सिटी से पढ़े लिखे लोग हैं, बेरोज़गार हैं या अर्द्ध बेरोज़गारी का शिकार हैं।
भारत का विकास कर्ज़ का जाल
एक अप्रैल 2025 से शुरू होकर 31 मार्च 2026 तक चलने वाले वित्त वर्ष में, 50.65 ट्रिलियन रुपये खर्च करने का सरकार अनुमान है, जोकि मौजूदा वित्त वर्ष में 47.16 ट्रिलियन रुपये है।
इस बजट का 31 प्रतिशत जोकि 15.69 ट्रिलियन रुपये है, इसकी व्यवस्था कर्ज से होनी है, जबकि ब्याज़ पर 12.76 ट्रिलियन रुपये खर्च का अनुमान है, जोकि अबतक का सबसे बड़ा इकलौता मद है।
चूंकि पिछले एक दशक से भारतीय कार्पोरेशनों के द्वारा पूंजी निवेश का ग्राफ़ नीचे की ओर ही जाता रहा है, इसलिए नए पूंजी निवेश का मुख्य ज़रिया अभूतपूर्व रूप से सरकार ही है। पूंजीगत खर्च (कैपिटल एक्सपेंडिचर यानी कैपेक्स) के लिए सरकार ने 11.21 ट्रिलियन रुपये का आवंटन किया है, जोकि पिछले साल की तुलना में 10 प्रतिशत अधिक है।
इसे आधारभूत ढांचा बनाने, जैसे भारतीय पूंजीवाद के विकास को गति देने के लिए सड़कें, ब्रिज, बंदरगाह बनाने और बिजली उपलब्ध कराने पर खर्च किया जाएगा और यह सब प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के तहत किया जाएगा। व्यवहार में इसका मतलब है- सरकारी खजाने के एक विशाल हिस्से को राजनीतिक रूप से ऊंचे रसूख रखने वाले याराना पूंजीपतियों (क्रोनी कैपिटलिस्ट) के हवाले करना जैसे अदानी और अम्बानी, जो अपना मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए लगातार अपनी 'सेवाओं' के लिए ऊंचे दाम वसूलते हैं, कम गुणवत्ता वाले सामान इस्तेमाल करते हैं और निर्माण समय सीमा को पूरा करने में बार बार विफल रहते हैं।
उदाहरण केलिए, फ़रवरी 2024 तक, मौजूदा समय में चल रहीं 1,902 परियोजनाओं में से 443 में 4.92 ट्रिलियन रुपये की लागत बढ़ गई, जोकि शुरुआती अनुमान से 18 प्रतिशत अधिक है।
मिलिटरी बजट में 10 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए इसे 6.81 ट्रिलियन रुपये कर दिया गया है। पिछले एक दशक के दौरान लगभग दहाई अंकों की वार्षिक वृद्धि के साथ यह शीर्ष पर आता है।
ये बस तीन मद- राष्ट्रीय कर्ज़े पर ब्याज़ भुगतान, कैपेक्स और मिलिटरी- इसी पर सरकार ने 30.78 ट्रिलियन रुपये (355.85 अरब डॉलर) का आवंटन किया है। यह अकेले कुल बजट का 61 प्रतिशत बैठता है, इसके बाद अन्य खर्चों के लिए महज 39 प्रतिशत बचता है।
यही कारण है कि सामाजिक खर्चों और कृषि आवंटन को भारी कटौती का सामना करना पड़ा है। कृषि और किसानों के कल्याण वाले विभाग का बजट 1.30 ट्रिलियन रुपये से घटा कर 1.27 ट्रिलियन रुपये कर दिया गया है, जोकि इस वित्त वर्ष में सरकार से इस मद में खर्च करने की उम्मीद की जाती है। भारत के सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के मार्फ़त रियायती दरों पर चावल और दालें उपलब्ध की जाती थीं, इन पर बजट आवंटन को पिछले साल की तरह ही 2 ट्रिलियन रुपये ही रखा गया है। महंगाई के बढ़ने के चलते, बजट न बढ़ाना एक बड़ी कटौती ही है, जिसकी वजह से पीडीएस पर निर्भर करोड़ों ग़रीब लोगों के लिए भोजन की उपलब्धता और कम हो जाएगी।
इसी तरह स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र की स्थिति उतनी ही अपार्याप्त है, जहां अस्पतालों में 24 लाख बिस्तरों की कमी है और कम से कम 12 लाख शिक्षकों की कमी है।
महात्मागांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा), जिसमें माना जाता है कि ग्रामीण परिवारों के एक सदस्य को साल में कम से कम 100 दिनों का काम देने की गारंटी है, इसके फ़ंड को कम करके ही रखा गया है। आने वाले वित्त वर्ष में मरनेगा का बजट पिछले साल की तरह 860 अरब रुपये ही रखा गया है। ग्रामीण मेहतनकश आबादी के सबसे उत्पीड़ित तबके को दी जाने वाली मज़दूरी, मोदी सरकार की भयानक क्रूरता को जगज़ाहिर करती है। कई राज्यों में, इस कमरतोड़ मेहनत वाले काम की दिहाड़ी अभी भी 200 रुपये है। बावजूद ये दिहाड़ी भी कई हफ़्तों और महीनों तक रुकी रहती है। कम से कम 6.5 करोड़ ग्रामीण परिवार, जोकि कुल 30 करोड़ आबादी होती है, अपनी आजीविका के लिए मनरेगा पर निर्भर हैं।
मिलिटरी खर्च में भारी वृद्धि सार्वजनिक धन की भारी बर्बादी है। 6.81 ट्रिलियन रुपये के बजट आवंटन में से 1.8 ट्रिलियन रुपये सिर्फ नए सैन्य उपकरण खरीदने के लिए आवंटित किए गए हैं, जैसे लड़ाकू विमान, परमाणु हथियार ले जाने की क्षमता वाली बैलिस्टिक मिसाइलें और अन्य हथियार प्रणाली।
यह मिलटरी खर्च सर्वप्रथम चीन और दूसरे दिल्ली के चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को निशाने पर लेने के लिए है। भारतीय पूंजापति वर्ग ने अमेरिकी निवेश पाने और रणनीतिक सहयोग की उम्मीद में खुद को चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी साम्राज्यवाद के सैन्य रणनीतिक आक्रमकता में सहयोगी बना लिया है।
हालांकि भारत के कुलीन पूंजीपति मुकेश अम्बानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज़ द्वारा वित्त पोषित प्रभावशाली थिंक टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेसन (ओआरएफ़) के लिए यह मिलिटरी बजट भी अपर्याप्त है या कम से कम इसमें कुछ बुनियादी बदलाव की ज़रूरत है ताकि हथियारों पर और अधिक रुपये खर्च किए जा सकें और जवानों पर कम खर्च हो, ख़ासकर पेंशन के मद में।
मोदी सरकार ने 470 अरब रुपये के विनिवेश यानी निजीकरण की घोषणा की है। यह मोदी सरकार के वित्त वर्ष 2023-24 में किए गए 330 अरब रुपये के विनिवेश से भी अधिक है। सरकार की मालिकाने वाली सार्वजनिक कंपनियों और अन्य संपत्तियों, जैसे बंदरगाह और हवाईअड्डों, की बिक्री ऐसा तरीक़ा है जिसका इस्तेमाल मोदी सरकार भारत के पूंजीपतियों को और अमीर करने के लिए करती है। उदाहरण के लिए, सरकार ने 2021 में सरकारी एयरलाइन एयर इंडिया को टाटा ग्रुप को औने पौने दामों में बेच दिया।
भारत के मज़दूरों और मेहनतकशों पर टैक्स का बोझ और बढ़ाना
यह बजट भारत में संपत्ति और आमदनी की खाई को और बढ़ाएगा, जोकि दुनिया में पहले ही सबसे बदतर है। भारत सरकार का अधिकांश राजस्व इनकम टैक्स और 2017 में लाए गए बहुत ही प्रतिगामी वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से आता है। जीएसटी सभी वस्तुओं, सेवाओं और यहां तक कि पैकेज्ड फ़ूड आइटम पर लगता है और आम तौर पर इसकी वजह से इनके दामों में 12 से 18 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। हालांकि जब अप्रैल 2017 में जीएसटी को राष्ट्रीय स्तर पर थोपा गया, उससे पहले राज्य और केंद्र दोनों ही स्तरों पर अप्रत्यक्ष कर मौजूद थे, लेकिन जनता पर जीएसटी से पड़ने वाला टैक्स बोझ, उनको कुचलने से कम नहीं है।
जीएसटी और इनकम टैक्स से आने वाला राजस्व 26.16 ट्रिलियन रुपये है। इसकी तुलना में, कार्पोरेट टैक्स से सरकार को महज 10.82 ट्रिलियन रुपये की आमदनी होती है। 2014 में जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई, उसने व्यस्थित रूप से टैक्स का भार वेतन भोगी, दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों पर डालने की कोशिश की है, जबकि उसने कार्पोरेट टैक्स में लगातार कटौती की है। साल 2010-11 के वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष कर में कार्पोरेट टैक्स की हिस्सेदारी 67 प्रतिशत थी और बाकी का हिस्सा वेतनभोगियों के इनकम टैक्स से आता था। उस समय कोई जीएसटी नहीं थी। मौजूदा समय में, कुल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर संग्रह का 71 प्रतिशत का भार वेतन भोगियों और आबादी के सबसे निचले तबके पर आ गया है।
एक एनजीओ ऑक्सफ़ैम इंडिया ने 15 जनवरी को अपनी रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि जीएसटी का अभूतपूर्व भार आम जनता पर पड़ा है। इस रिपोर्ट में कहा गया हैः
2021-22 में जीएसटी के द्वारा वसूले गए 14.83 करोड़ रुपये का 64 प्रतिशत आबादी के सबसे निचले 50 प्रतिशत हिस्से की ओर से आया था। अनुमानों के मुताबिक़, जीएसटी का 30 प्रतिशत हिस्सा आबादी के मध्य वाले हिस्से के 40 प्रतिशत लोगों से और आबादी के शीर्ष पर बैठे 10 प्रतिशत लोगों से महज तीन प्रतिशत ही हिस्सा आया।
अधिकांश भारतीयों के पास कोई नियमित नौकरी नहीं है और वे कथित 'असंगठित क्षेत्र' में काम करके अपनी आजीविका चलाते हैं, जिसमें फुटपाथ पर रेहड़ी पटरी लगाने वाले छोटे मोटे काम करने, फेरी लगाने वाले, दिहाड़ी मज़दूर, कर्मचारी और ऐसे ही लोग शामिल हैं। चूंकि रोज़गार के नए अवसर पैदा नहीं हो रहे हैं, ख़ासकर विनिर्माण क्षेत्र में, जिसका भारत की जीडीपी में हिस्सेदारी 15 प्रतिशत है, इसलिए अधिक से अधिक युवा कथित रूप से “स्व रोज़गार“ के मार्फ़त अपनी आजीविका चलाने को मजबूर हैं। भारत की जनता में हालात इतने ख़राब है कि, फ़ाउंडेशन फ़ॉर एग्रेरियन स्टडी (एफ़एएस) द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार, 2022-23 में सरकार के हाउसहोल्ड कंज़प्शन एक्सपेंडिचर सर्वे के डेटा में खुलासा किया गया है कि 36 करोड़ लोग रोज़मर्रे का खाना पीना, स्वास्थ्य और आवास का खर्च जुटाने में असमर्थ हैं।
भारतीय आर्थिक विकास दर से दुनिया के “ईर्ष्या“ करने की चर्चा के बावजूद, पूंजीवादी अर्थशास्त्री भी मानने को मज़बूर हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत बुरी हालत में है। विदेशी और देशी पूंजी की ओर से पूंजी निवेश पिछले दशक में बहुत बुरी तरह गिरा है। 2024 के वित्त वर्ष में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ़डीआई) में 62.17 प्रतिशत की गिरावट आई है और यह गिरकर 10.58 अरब डॉलर के 17 सालों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है।
पूंजी निवेश की ज़रूरत इतनी अधिक हो गयी है कि भारत के प्रमुख आर्थिक सलाहकार वी अनंद नागेश्वरन ने पिछले साल वक़ालत की थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था को चीन के ग्लोबल सप्लाई चेन से खुद को जोड़ लेना चाहिए या चीन से एफ़डीआई को प्रोत्साहित करना चाहिए। यह सलाह इसके बावजूद दी गई, जब नई दिल्ली बीजिंग के ख़िलाफ़ अमेरिकी युद्ध आक्रामकता में खुद को पूरी तरह शामिल कर रही है।